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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 34 
महाराज वृषपर्वा के राजदरबार को भांति भांति से सजाया जाने लगा । पुरानी कालीन हटाकर नई कालीन बिछाई जाने लगीं । जगह जगह रंगोली सजाई जाने लगी । संपूर्ण राज्य में बड़ा उत्साह था । दैत्य नगरी में एक बहुत बड़ा "साहित्य संगम" होने जा रहा था । इस साहित्य संगम में दूर देशों से बड़े बड़े विद्वान, साहित्यकार भाग लेने वाले थे । महाराज वृषपर्वा ने इस आयोजन की व्यवस्था शुक्राचार्य को दे दी थी । आचार्य ने अपने समस्त शिष्यों को व्यवस्था में लगा दिया । जितने भी कवि , लेखक और साहित्यकार आने वाले थे उन सबके साथ एक एक "साहित्य" विषय वाला विद्यार्थी उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु लगा दिया गया । सभी व्यवस्थाऐं सुचारू रूप से संपन्न हो गईं थीं  । 

नियत तिथि और नियत समय पर "साहित्य संगम" कार्यक्रम प्रारंभ हुआ । महाराज वृषपर्वा के साथ महारानी प्रियंवदा और राजकुमारी शर्मिष्ठा भी थीं तो शुक्राचार्य के साथ देवयानी भी थी । अमात्य ने कार्यक्रम प्रारंभ करने की घोषणा करने के लिए शुक्राचार्य से अनुमति मांगी । शुक्राचार्य ने कच को बुलाकर पूछा कि क्या सारी व्यवस्थाऐं पूर्ण हो गई  हैं ? 
"जी, आचार्य । संपूर्ण व्यवस्थाऐं पूर्ण हो चुकी हैं । अब कार्यक्रम प्रारंभ किया जा सकता है" । 

देवयानी शुक्राचार्य के पास ही बैठी थी इसलिए उसने शुक्राचार्य और कच का वार्तालाप सुन लिया था । उस वार्तालाप से उसे ज्ञात हुआ था कि वह कच है । आज प्रथम बार उसने कच को देखा था । कच को देखकर उसे विश्वास नहीं हुआ था कि वह कच ही था । उसने सुनिश्चित करने के लिए अपने पिता शुक्राचार्य से पूछा 
"तात् , ये कौन सा शिष्य था , जिससे अभी आप बात कर रहे थे" ? 
"ये कच था" 
"कौन कच ? क्या ये आपका शिष्य है" ? 
"हां, ये मेरा शिष्य है । देवताओं के गुरू ब्रहस्पति का पुत्र है कच । मेरे पास "नीतिशास्त्र" पढने आया है । अद्भुत बालक है यह । मेरे समस्त शिष्यों में यह सर्वश्रेष्ठ है । मुझे कच जैसे शिष्य पर बहुत गर्व" है । 

शुक्राचार्य कच की प्रशंसा किये जा रहे थे लेकिन देवयानी कुछ सुन ही नहीं रही थी । वह तो कच को निरंतर देखे जा रही थी । कामदेव से भी अधिक सुन्दर,  कंधों पर झूलते घने काले बाल , बड़ी और तेज भरी आंखें और लंबी नासिका उसे विलक्षण बना रही थी । उसके कंधे कितने विशाल हैं ? सीना कितना चौड़ा है ? भुजाऐं कितनी मजबूत हैं ? चाल ढाल से वह सिंह की तरह लग रहा था । मुख पर इतना तेज था कि उस तेज से देवयानी की आंखें चौंधिया गई थीं । ब्राहणत्व और क्षत्रियत्व का अद्भुत संगम था कच । देवयानी कच को अपलक निहारती रह गई । वह कार्यक्रम को भूल गई और कच के व्यक्तित्व में ही खो गई । 

उधर शर्मिष्ठा का पूरा ध्यान साहित्यकारों की प्रस्तुतियों में लगा हुआ था । जो भी साहित्यकार अपनी रचना पढकर सुनाता था,  वह जनता को बहुत पसंद आ रही थी । तालियों की गड़गड़ाहट से दर्शकों और श्रोताओं की मानसिक स्थिति का पता चल रहा था । एक एक कर सभी साहित्यकार मंच पर आ रहे थे और अपनी रचना को पढकर श्रोताओं से प्रशंसा और महाराज वृषपर्वा से पुरुस्कार ग्रहण करके जा रहे थे । 

हस्तिनापुर से एक साहित्यकार "राजशेखर" आये और उन्होंने सम्राट ययाति के व्यक्तित्व के बारे में एक रचना पढ़ी । उस रचना में सम्राट ययाति की बुद्धिमत्ता, वीरता , क्षमाशीलता , दानवीरता ,साहस , धैर्य, मानवता और धर्मपरायणता का विशद वर्णन था । राजशेखर ने ययाति का इस तरह वर्णन किया था कि सम्राट ययाति जैसा व्यक्तित्व ना पहले कभी हुआ है और न बाद में कभी होगा । शर्मिष्ठा ने भी राजशेखर की रचना को ध्यान से सुना था । उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि मनुष्यों में ऐसा कोई सम्राट भी हो सकता है जैसा ययाति का वर्णन इस रचना में हुआ है । जबसे उसने सम्राट ययाति के बारे में सुना था , उसकी अब कुछ और सुनने की इच्छा ही नहीं रही थी । उसकी कल्पनाओं में सम्राट ययाति की छवि बनने लगी थी । उस छवि को देखकर शर्मिष्ठा के मुख पर प्रसन्नता और लाज के भाव एक एक कर आने लगे । उसने नजरें बचाकर अपनी मां की ओर देखा कि कहीं वह शर्मिष्ठा के भावों को ताड़ ना ले । उसे यह देखकर संतोष का अनुभव हुआ कि महारानी प्रियंवदा का ध्यान कवियों की कविताऐं सुनने में ही लगा हुआ था । उसने मन ही मन भगवान को धन्यवाद दिया कि उसकी चोरी पकड़ी नहीं गई थी । 

"साहित्य संगम" कार्यक्रम समाप्त घोषित कर दिया गया था । देवयानी और शर्मिष्ठा अपने अपने विचारों में इतनी तल्लीन थीं कि उन्हें इसका पता ही नहीं चला था । समस्त साहित्यकारों को उचित पारितोषिक वितरण कर दिया गया था । राजशेखर को सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार घोषित किया गया था । राजशेखर अपना पारितोषिक ग्रहण करने जब मंच पर आने लगे तो उपस्थित दर्शकों ने करतल ध्वनि से उनका स्वागत किया । महाराज वृषपर्वा ने उन्हें इतना पारितोषिक प्रदान किया कि वे गदगद हो गये । 

शर्मिष्ठा ने राजशेखर से कहा "माननीय , आपने जिस तरह सम्राट ययाति का वर्णन अपनी रचना में किया है वह अद्भुत, अद्वितीय, अवर्णनीय और अकल्पनीय है । आपके साहित्य सृजन की जितनी भी प्रशंसा की जाये , वह कम ही है । क्या मुझे आपकी रचना की एक प्रति मिल सकेगी" ?  शर्मिष्ठा की आंखों में विनम्र आग्रह था । 
"हां हां, क्यों नहीं" ? राजशेखर ने अपनी जेब में पड़ी रचना की एक अतिरिक्त प्रति निकालकर शर्मिष्ठा को दे दी  । शर्मिष्ठा ने उसे ऐसे ग्रहण किया जैसे कोई भक्त अपने भगवान को ग्रहण करता है । 

कार्यक्रम समाप्ति के पश्चात सब लोग अपने अपने घरों को चले गए । 

श्री हरि 
6.7.2023 

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3 Comments

वानी

12-Jul-2023 10:04 AM

Nice

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Varsha_Upadhyay

11-Jul-2023 09:08 PM

👏👌

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Hari Shanker Goyal "Hari"

11-Jul-2023 10:44 PM

🙏🙏

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